गीत चतुर्वेदी

मुंबई का किताब-चोर


मैं एक चोर हुआ करता था। न मैंने सोना चुराया, न चाँदी! न नक़दी, न हीरे-जवाहरात! कपड़े-लत्ते, टीवी-रेडियो और बर्तन भी मैंने कभी नहीं चुराये। लेकिन सच है कि मैं एक चोर हुआ करता था, भले अधिक समय के लिए नहीं। मैं किताबें चुराया करता था। किसी शातिर, हुनरमंद की तरह।

मुझे किताबें पढ़ने का शौक़ था। आप जानते ही हैं, यह एक महँगा शौक़ है। किताबें किसी युग में सस्ती नहीं रहीं और हर युग में मेरी जेब में पैसे कम ही रहे। इस मजबूरी के कारण मैंने पहली बार किताबों की चोरी की। और उस ‘पहली बार’ में मुझे इतना आनंद आया कि मैंने बार-बार चोरी की।

चोरी और चुंबन एक जैसे होते हैं। एक बार चोरी करने के बाद, बार-बार चोरी करने का मन करता है। इच्छाओं का जिन्न, मन के चिराग़ से बाहर निकल आता है। जब हवस आती है, सबसे पहले हम हवास खोते हैं। किताबें भी एक हवस हैं। दीग़र कि एक अच्छी हवस!

जैसे लकड़ी का कीड़ा बिना भेदभाव किए सबकुछ चट कर जाता है,  मैं पढ़ने की हर चीज़ चट कर जाता था। किताब, अख़बार से लेकर पत्रिकाएँ तक। जब पढ़ने को कुछ न होता, तो मैं बेचैन हो जाता। पुराने ख़त पढ़ता। वे ख़त्म हो जाते, तो उनके लिफ़ाफ़े पढ़ता। अंतर्देशीय पत्र के बाहरी किनारे में बारीक अक्षरों में जो निर्देश छपे होते, उन्हें पढ़ जाता। लाला रामनारायण के पंचांग पढ़ जाता। दवा की बोतल में आठ मोड़ वाले पर्चे रखे होते, जिनमें विभिन्न भाषाओं में रोगों की जानकारियाँ लिखी होतीं। उनमें जितनी लिपियाँ मुझे आती थीं, वे सब पढ़ डालता। जो लिपियाँ समझ में न आतीं, उन्हें चित्रों की तरह घूरता रहता। दुर्भाग्य कि जल्द ही वे भी ख़त्म हो जाते, लेकिन दुर्भाग्य ख़त्म नहीं होता, बस, ऊर्जा की तरह वह अपना रूप बदल लेता है।

नब्बे की दहाई के शुरुआती बरस थे। उस ज़माने में सर्कुलेटिंग लाइब्रेरियाँ होती थीं। मुंबई में ऐसी लाइब्रेरियाँ अक्सर ठेलों पर लगी होतीं। वड़ा-पाव और कांदा भजिया की तरह किताबें भी मिल जाती थीं। पान-टपरी की तरह हर दूसरे चौराहे पर एक ठेला-लाइब्रेरी होती थी। वे दस-बीस रुपए डिपॉजिट रखते, आप सदस्य बन जाते। फिर वहाँ से कोई भी किताब या पत्रिका तीन दिन के लिए ली जा सकती थी। किराया एक या दो रुपए। किताब लौटाने की मियाद पूरी हो गई, तो किराया बढ़ जाता था।

किताबों के मामले में उन ठेलों का अपना एक अलग ही टेस्ट होता था। मेरी दिलचस्पी साहित्यिक किताबों में थीं, जबकि वहाँ जासूसी उपन्यास अधिक होते थे। हिंदी में साहित्य के नाम पर वे ठेले प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, आचार्य चतुरसेन से आगे नहीं बढ़ पाते थे। यही हाल मराठी और अंग्रेज़ी किताबों के साथ भी था। हालांकि मराठी और अंग्रेज़ी में साहित्येतर उपन्यासों की एक अच्छी परंपरा है, जो छिछली और फूहड़ हुए बिना हुआ आपको पठन का सुख दे सकती है।

मेरे पास ऐसे कई ठेलों की सदस्यता थी, लेकिन मैंने एक कुशल किताबी-दीमक की तरह वहाँ का स्टॉक भी ख़त्म कर दिया था। जो चीज़ें मुझे चाहिए थीं, वे आसानी से उपलब्ध नहीं थीं। ऐसे में मुझे किसी नई जगह की तलाश थी।

जहाँ चाह, वहाँ राह! जल्द ही मुझे एक नया ठीया मिल गया। भले घर से दूर, लेकिन एक मालदार ठीया!

उस ठीये को हम साफ़-साफ़ दुकान नहीं कह सकते। वह रद्दीवाला, स्टेशनरी वाला और ठेला लाइब्रेरी आदि की कोई ‘क्रॉस ब्रीड’ थी। यानी उसमें ये सब चीज़ें उपलब्ध थीं। उसके पास बड़ी-सी जगह थी। दुकान के अंदर जाने पर विशाल हॉल था, जिसमें चारों ओर किताबें लगी हुई थीं। सुपर स्टोर की तरह आप अंदर जाएँ, मनपसंद किताब उठाएँ और लेकर आ जाएँ। मेरे लिए यह बिल्कुल नया अनुभव था।

वहाँ की सदस्यता दूसरी जगहों से महँगी थी और प्रतिदिन का किराया भी अधिक था, लेकिन अंदर नई तरह की किताबें थीं। येट्स, शेली, कीट्स और बायरन ही नहीं, टेड ह्यूज़. स्टीफ़न स्पेंडर और सैम्युअल बेकेट भी उपलब्ध थे। शेक्सपीयर का पूरा एक स्टॉल था, जिसमें एक ही किताब के कई अलग-अलग संस्करण थे। हिंदी में प्रेमचंद-प्रसाद ही नहीं, धर्मवीर भारती, मोहन राकेश, मनोहर श्याम जोशी और कमलेश्वर जैसों की किताबें भी थीं, जो केवल शुद्ध साहित्यिक दुकानों में ही मिल सकती थीं। मुझे आनंद आ गया। मैं धड़ाधड़ किताबें लेने लगा। अपने भाई-बंधुओं के साथ वहाँ जाने लगा। कई किताबें लीं, उन्हें पढ़ा।

उस दुकान का एक अजीब नियम था- कुछ किताबों को वह किराये पर देती ही नहीं थी। पढ़ना है, तो उन्हें ख़रीदना होगा। जैसा कि जीवन में होता है, मुश्किल से मिलनेवाली चीज़ें ज़्यादा आकर्षित करती हैं, मुझे भी वही किताबें ज़्यादा खींचती थीं, जिन्हें मैं किराये पर नहीं ले सकता था। ख़रीदना मजबूरी थी। जेब में पैसे थे नहीं। आशिक़ी सब्रतलब होती है, लेकिन तमन्ना बेताब! मैं सब्र नहीं, तमन्ना का वंशज था। हसरतों में डूबकर उन किताबों को देखता, ललचाता, बौद्धिक लार टपकाता, उन्हीं किताबों को उलट-पुलटकर देखता-निहारता रहता था।

और तब, मैंने अपने जीवन की पहली किताब चुराई।

दुकान संभालने के लिए मेहता साहब हुआ करते थे। अधेड़, अकेले, छरहरे! वह बाहर काउंटर पर ही इतने व्यस्त रहते कि अंदर क्या हो रहा है, झाँकने की फ़ुरसत नहीं होती थी। मैं कई दिनों से ताड़ रहा था। उस रोज़ मैंने यहाँ-वहाँ देखा और किताब अपनी पैंट में अँड़सा ली। ऊपर से क़मीज़ लटक ही रही थी। किताब का आकार इतना नहीं था कि बाहर से पता चल सके। मेरा दिल फूहड़ तरीक़े से धड़क रहा था। भीतर कोई नैतिक कुमार सदाचार सक्सेना हल्ला भी मचा रहे थे। पर उस समय मुझे सामान्य बने रहने का अभिनय करना था। वे बेहद भारी पल थे। हर बार की तरह मैंने काउंटर पर एक किताब रखी। उसका किराया चुकाया। मेहता साहब ने अपने रजिस्टर में दर्ज किया और मैं किराये की किताब लेकर बाहर सड़क पर आ गया। मेरे पेट के पास एक और किताब अँड़सी हुई थी, यह बात किसी को पता न चल सकी। मैं सड़क पर भी सामान्य रहने का अभिनय करता घर की ओर चला, लेकिन पैंट के अंदर डर के मारे मेरे पैर काँप रहे थे। सुखद है कि वह काँप मेरे सिवाय किसी को पता न चल पाई।

रास्ते-भर लगता रहा कि कोई मेरा पीछा कर रहा है। वह अचानक मेरे सामने आएगा, मेरी शर्ट उठा देगा, वहाँ से एक चुराई हुई किताब झाँकेगी और सरेराह मुझे शर्मिंदा कर देगी। मैं इतना सचेत था कि मैंने शर्ट के ऊपर से उस किताब को स्पर्श तक न किया। बस, यह अंदाज़ा मिल रहा था कि वह सही जगह अटकी हुई है, मेरे चलने से गिरने वाली नहीं। इतना काफ़ी था। घर पहुँचने के बाद मैं सबसे पहले बाथरूम गया। किताब निकाली। और देर तक गहरी साँसें लेकर ख़ुद को नॉर्मल करता रहा। 

मेरी पहली चोरी सफलतापूर्वक पूरी हो चुकी थी।

वह थी हिंदी अनुवाद में अल्बेयर कामू की ‘अजनबी’। उसकी पतली-सी काया। उस किताब ने मेरे मन पर गहरा असर डाला। नैतिकता के प्रश्नों को पुनर्परिभाषित करता हुआ चिंतन, जो यह बताता था कि हमारा इस धरती पर अस्तित्वमान होना ही दरअसल एक विराट अनैतिकता है। किसी दूसरे को यह अधिकार नहीं कि हमारे कर्मों और क्रियाओं के आधार पर हमारे बारे में धारणा बना सके, ख़ुद हमें भी यह अधिकार नहीं है। जो कुछ हमारे आसपास के मनुष्यों द्वारा नैतिक समझा जाता है, सिर्फ़ वही नैतिक हो-- यह अनिवार्य नहीं। दूसरों द्वारा अनैतिक घोषित की गई बातें, हमारे निजी लोक को एक नैतिक आलोक से भर सकती हैं।

उस किताब को पढ़ने के प्रति मुझमें इतनी उत्सुकता थी कि मेरे भीतर कोई पछतावा नहीं था कि मैंने चोरी की है। मैं जिस पारिवारिक पृष्ठभूमि से आया हूँ, वहाँ किसी का अनर्गल एक रुपया तक रख लेना एक बड़ा अपराध है। एक बार मेरे पिता चार किलोमीटर पैदल चलकर वापस बाज़ार गए थे और दुकानदार को वे तीन अतिरिक्त रुपए वापस कर आए थे, जो कि उसने हिसाब की ग़लती की वजह से पिता को दे दिए थे। तो ऐसे माहौल में, मैंने किताब चुराने जैसा बड़ा अपराध किया और मेरे भीतर उस अपराध को लेकर कोई दुख भी नहीं था, तो बस इसलिए, कि मैंने कई लेखों में कामू की महानता के बारे में पढ़ रखा था और उस किताब को पढ़ लेने की बेसब्री, मेरे ताज़ा अपराध व उसके संभावित बोध से कहीं अधिक बलवान थी।

‘अजनबी’ शुरू करते ही मुझे पता चला कि मुख्य चरित्र मर्सो के भीतर भी कोई ग्लानि व दुख नहीं है। उसकी माँ मर गई है, लेकिन उसके भीतर कोई मातम नहीं है। किताब के दूसरे हिस्से में, हत्या करने के बाद, उस पर मुक़दमा चलता है। वकील या जज के लिए हत्या साधारण चीज़ें हैं, उन्हें उस पर अचरज नहीं होता, बल्कि इस बात पर होता है कि इस चरित्र के भीतर, हत्या कर देने की कोई ग्लानि या पछतावा नहीं है, कोई गौरव भी नहीं है। मर्सो ने वह हत्या आत्मरक्षा के लिए की थी, इसलिए क़ायदे से उसकी सज़ा कम होनी चाहिए, लेकिन जज तो उसकी अनुभूतिविहीनता (जो कि नृशंस नहीं है) से चकित है, इस नाते मर्सो को प्राणदंड दिया जाता है।

ग्लानि न होना व ग्लानि को प्रदर्शित न करना, दो अलग-अलग बातें हैं। मर्सो के भीतर कोई ग्लानि थी या नहीं, इस पर साहित्यिक आलोचकों के बीच बरसों से दार्शनिक बहसें चल रही हैं, कामेल दाउद ने तो मर्सो का विश्लेषण करते हुए एक पूरा उपन्यास ही रच दिया है, लेकिन जो महत्वपूर्ण पक्ष है, उसे ख़ुद कामू ने ही स्पष्टता से लिख दिया है- ग्लानि का प्रदर्शन न करना।

आमतौर पर मान लिया जाता है कि किसी अनुभूति का प्रदर्शन न किया जाए, तो वह अनुभूति आपके भीतर है ही नहीं। मनुष्य प्रदर्शनकारी पशु है। उसका सारा कारोबार प्रदर्शन के बल पर ही चलता है।

आप किसी से रत्ती-भर प्रेम न करें, लेकिन प्रेम का आला प्रदर्शन करें, तो वह ताउम्र मानता रहेगा कि आप उससे प्रेम करते हैं। आप किसी से इफ़रात प्रेम करें, और प्रेम का रत्ती-भर प्रदर्शन भी न करें, तो बेचारा ताउम्र मान ही न पाएगा कि आप उससे प्रेम करते हैं।

सदाचार और नैतिकता के मान्य प्रतिमान मनुष्य के स्वभाव का प्रपंच रचते हैं और कामू अपनी किताब में उसी प्रपंच का पंचनामा करते हैं। दोस्तोएव्स्की का रस्कोलनिकोव और कामू का मर्सो, दोनों ही अलग-अलग रास्तों से एक ही जगह पहुँचते हैं- सामाजिक प्रतिमानों के आधार पर मनुष्य के व्यवहार व स्वभाव में विकसित हो चुका प्रपंचों का खोखलापन।

अपने अपराध के प्रति मेरे भीतर भी कोई ग्लानि नहीं थी, लेकिन मेरा मामला मर्सो से कहीं अलग था। मेरी सांद्रता मर्सो जितनी नहीं थी। बावजूद, मैं उससे एक जुड़ाव महसूस करने लगा था। कामू की वह किताब कई कारणों से मेरे लिए मीठा लड्‌डू है। चोरी से खाई गई मिठाई अधिक मीठी लगती है। मैंने उस किताब का स्वाद बार-बार लिया। एक जोखिम करना, उसमें न पकड़ा जाना और उससे एक मीठा फल पा लेना-  ये सब मिलकर एक बड़ा नशा रचते हैं।

मैं अगली चोरी की प्रतीक्षा व योजना बनाने लगा।

किताब चुराने के सारे तरीक़े दरअसल बेहद साधारण होते हैं। आपको बस छुपाने की एक जगह चाहिए होती है। चोरी करते समय कोई देख न रहा हो, बस, इसका ख़्याल रखना होता है। सिर्फ़ यह कोशिश करनी होती है कि कोई आप पर संदेह न कर सके।

चोरी क्या है? या तो किसी के विश्वास के साथ घात करना या फिर क्षण-भर के लिए भी किसी का ध्यान बँटा, तो उसके साथ एक चतुर-चौकस खेल कर देना!

चुराने को हम ढाँपना कहते थे। ‘चोरी’ शब्द में कोई वैभव नहीं है, यह अपने आप में निरीह हो चुका शब्द है। हम जनता हैं। हम ऐसे घिस चुके शब्दों को अपने आप बदल देते हैं। एक नया तड़कता-भड़कता, वैभवशाली शब्द खोज लाते हैं। हर भूगोल के पास ऐसी निजी भाषा होती है। जैसे प्रेमी-प्रेमिका या गर्लफ्रैंड-बॉयफ्रैंड इतने किताबी व औपचारिक शब्द हैं कि हमने उन्हें अपने भाषिक रजिस्टर से बाहर कर दिया था। प्रेम की उत्तेजना व उसका खिलंदड़ापन हमें ‘छावा-छावी’ शब्दों में मिलते थे। ‘छावा’ यानी शेर का बच्चा।

जब गर्लफ्रेंड आती थी, तो हम कहते थे, “तेरी छावी आ गई!” इस तरह का अनौपचारिक वाक्य सुनकर उस ज़माने में मन के भीतर अनुभूति जाग जाती थी कि भाई, अपन छावा हैं, अपन शेर के बच्चे हैं। आज ऐसे किसी भी संबोधन को सुनकर लगता है, कैसी सस्ती भाषा बोल रहा यह लड़का!

हमारी बंबइया भाषा में ‘ढाँपना’ एक समृद्ध व विजेता शब्द है। ‘ढाँपना’ शब्द के साथ ही विजय का बोध जुड़ा हुआ है। तो किताब ढाँपते ही विजेता-भाव से भर जाना बेहद स्वाभाविक, आत्मिक क्रिया है। ऐसी अनुभूतिजन्य क्रियाओं का आत्मा या हृदय से जुड़ा होना एक प्रदर्शनकारी अनिवार्यता है।

शुभेच्छा, शुभेच्छा ही होती है, उसे ‘हार्दिक शुभेच्छा’ कहने से वह कोई बड़ी थोड़े हो जाएगी, लेकिन भाषा के भीतर बार-बार हार्दिक शुभेच्छा, हार्दिक आभार कहा जाता है। शुभेच्छा हार्दिक ही होगी, शारीरिक तो न होगी। होगी भी, तो ऐसे फ्री-फंड में, बिना आपत्ति के, खुलेआम न बाँटी जाएगी।

 इन प्रदर्शनकारी अनिवार्यताओं को भाषा के भीतर से कभी नहीं हटाया जा सकता, क्योंकि ये हमारे स्वभाव के फैब्रिक से निर्मित हैं।

चोरी भी ऐसा ही एक फैब्रिक है।

जब मैंने अपने मित्रों के बीच सुनाया कि मैंने एक शानदार किताब चुराई है, तब मुझे अहसास हुआ कि वे सब भी किसी न किसी समय, कुछ न कुछ चुराते रहे हैं। हर आदमी कहीं न कहीं चोर होता है। भौतिक चीज़ें न भी चुराईं, तो भी हार्दिक-आत्मिक-आध्यात्मिक चोरियाँ की होंगी।

यह न समझा जाए कि हमाम में सब नंगे हैं, तो मैं अपने नंगेपन का बचाव कर रहा, बल्कि महज़ यह बताने की कोशिश कर रहा कि जिसे मैं अपने जीवन का महान जोखिम समझ रहा था, वह बाक़ियों के जीवन के लिए रोज़मर्रा की बात थी।

लेकिन किताब चुराना, मेरे लिए रोज़मर्रा की बात नहीं थी। यह महान उत्सव था। उसके लिए लंबी मानसिक तैयारी करनी पड़ती थी। किताब चुराना, अमावस या पूनम की तरह माह में एक-दो बार घटित होने वाली अलौकिक कार्यवाही थी। मैंने भाँति-भाँति से किताबें चुराईं। एक साल तक चुराता रहा।

कभी काउंटर पर ले जाकर किताब रख दी, ध्यान बँटाकर उसे गिरा दिया और नीचे झुककर जूते के तस्मे बाँधने के बहाने उसे अपने झोले में रख दिया। जब मेहता साहब हमारी ओर पीठ करके पीछे की आलमारी से कुछ निकाल रहे होते, हम बहुत तेज़ी से एक किताब उठाकर बाहर पार्किंग में खड़ी कार के नीचे फेंक देते। दो-तीन मित्र काउंटर पर ही लड़ लेते और मैं किताब लेकर चंपत हो जाता।

फिलॉसफ़ी बस इतनी कि ईश्वर को पाने के रास्ते अनेक होते हैं! सफलता का पैमाना बस इतना कि अंत में ईश्वर मिला या नहीं!

और एक दिन मैं पकड़ा गया।

जब मेहता साहब ने शर्ट उठाकर, मेरी पैंट में अँड़सी हुई किताब को खींचकर बाहर निकाला, जिसका कवर पसीने से हल्का गीला हो चुका था, तब सारी डेरिंगबाज़ी गुइयाँ के खेत में चली गई। हाथ-पैर काँपने लग गए। फटके पड़नेवाले थे। अब पड़े कि तब। मैं मन ही मन अपने गालों, सिर और पीठ को मज़बूत कर रहा था, क्योंकि पिटाई इन्हीं जगहों पर लगती है।

मैं हर तीसरे रोज़ उनके यहाँ जाता था, तो एक तरह से मेहता साहब मुझे पहचानते भी थे। वह मुझे अपने साथ काउंटर तक ले आए और एक किनारे बैठा दिया। इसके अलावा उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं की। काउंटर पर खड़े दूसरे ग्राहकों के साथ व्यवहार करने लगे।

हर पल काटना मुश्किल हो रहा था। मैं क़ैदी जैसा महसूस करने लगा। मन कर रहा था कि वहाँ से उठकर भाग जाऊँ। डर लग रहा था, इन्होंने ऐसे बिठाकर रखा है, अब या तो यह पुलिस को बुलाएँगे या अपने किन्हीं साथियों को। फिर मेरी उछलकर सुँताई होगी।

मैं उनसे कहना चाहता था कि जो करना है, तुरंत कर दें, लेकिन उन्होंने मुझे बिठाए रखा था। मेरी हर हरकत पर ख़ामोश रहने का इशारा कर देते। मुझे वह और त्रासद लगता। सुनवाई के इंतज़ार से बड़ी सज़ा कुछ नहीं होती!

वहाँ बैठे-बैठे क़रीब आधा घंटा बीत गया। मैं डरा हुआ था! मुझे ऐसी सिचुएशन में होने की आदत नहीं थी। मैं हर तरह की सज़ा के लिए तैयार था।

जब उनका काउंटर ख़ाली हो गया, दुकान बंद करने का समय हो गया, वह मुझसे मुख़ातिब हुए। मेरे बारे में पूछताछ करने लगे। कौन हो? कहाँ रहते हो? पापा क्या करते हैं? तुम कहाँ पढ़ते हो?

मैंने निष्ठापूर्वक हर प्रश्न का जवाब दिया। और तब आया सारे सवालों का बाप--- ‘किताब क्यों चुराई?’

“मुझे पढ़ना अच्छा लगता है। हर किताब ख़रीदी नहीं जा सकती, उतने पैसे नहीं होते।”

हमारे बीच थोड़ी देर तक बातें होती रहीं। उन्होंने एक बार भी मुझे माफ़ी माँगने को नहीं कहा। शायद वह उम्मीद कर रहे होंगे कि मैं अपने आप बोल दूँगा। लेकिन मैंने एक बार भी माफ़ी नहीं माँगी। मेरे मन पर मर्सो छाया था। मैं उतना निष्ठुर नहीं था। ग्लानियों से दूर रहने का सबक़ मर्सो ने ही दिया था।

संजोग की बात कि मेहता साहब कामू की किताब के जज या वकील नहीं थे। उन्होंने मुझे सज़ा सुनाई, लेकिन बिना सज़ा सुनाए। जो किताब उन्होंने मेरी पैंट से खींचकर निकाली थी, उसे मुझे पकड़ाते हुए उन्होंने कहा, ‘’इस किताब को तुम रख लो। मेरी तरफ़ से एक तोहफ़ा। तुम्हें जब भी किताबें पढ़नी हों, यहाँ आ जाना। यहीं बैठकर पढ़ लेना या घर लेकर चले जाना, लेकिन चुराना मत! जब पैसे हों, दे देना। ना हों, तो मत देना, लेकिन चुराना मत! मुझे बताकर किताब ले जाना। मुझसे माँग लेना! मैं ऐसे ही तुम्हें किताब दे देता।‘’

ऐसी आदर्शवादी बातें मैं प्रेमचंद और सुदर्शन के यहाँ पढ़ा करता था। मुझे उम्मीद भी नहीं थी कि मेहता साहब उनके चरित्रों की तरह होंगे। दंड से वंचित कर दिए जाने ने अपराध को कभी विस्मृत नहीं होने दिया। मेहता साहब की उस मुद्रा में ऐसा अपनापा था कि मेरे भीतर ग्लानि का सैलाब आ गया। मेरी आँखें भर आईं। एक साल तक जिस चोरी के मैं चटख़ारे लिया करता था, अचानक उस पर शर्मिंदा होने लगा।

मुझे आदर्शवादी कहानियाँ कभी ख़ास पसंद नहीं रहीं। अहमद नदीम क़ासमी का वह शेर मुझे हमेशा याद आता है :

इस क़दर प्यार है इंसाँ की ख़ताओं से मुझे
कि फ़रिश्ता मिरा मेआ'र नहीं हो सकता

लेकिन जीवन सबरंग है। मेहता साहब में भी कई ख़ताएँ होंगी, मुझमें तो भरी ही हुई हैं, लेकिन हमारे भीतर की अनुभूतियाँ इसी तरह की घटनाओं से जागती हैं। इंसान बहुत सारी भूमिकाएँ निभाता है, जिनमें से एक भूमिका अलार्म की होती है। मेहता साहब को याद करना मुझे अच्छा लगता है। मैं दस दिन तक उनकी दुकान में नहीं गया। और जब गया, वहाँ घंटों बैठा रहता। कई बार उनकी अनुपस्थिति में मैंने उनका काउंटर भी संभाला। और उस दौरान भी मैं वहाँ किताबें ही पढ़ता रहा। रस्कोलनिकोव और मर्सो आज भी मेरे पसंदीदा किरदारों में से हैं। मनुष्य के व्यवहार व स्वभाव के प्रपंच को मैं अभी भी समझने की कोशिश करता हूँ। हम सब पंचमुखी प्रपंच हैं। कब क्या कर जाएँ, कोई अंदाज़ा नहीं।

भावनात्मक आदर्शवाद का कला में कम मोल लगता है, लेकिन जब वह जीवन में अप्रत्याशित तौर पर आ जाए, तो यादगार व अनमोल हो जाता है। भावनात्मक आदर्शवाद से भरे वैसे लोग जीवन में कम ही होते हैं, इसलिए जब भी दिखते हैं, लंबे समय के लिए याद रह जाते हैं।

मेहता साहब को याद करता हूँ, तो नैयर मसउद की कहानी याद आती है। उसमें एक चरित्र की तरह आए नवाब वाजिद अली शाह याद आ जाते हैं। कहानी है ‘ताउस चमन की मैना’। उसका मुख्य चरित्र है काले ख़ाँ। उसकी बेटी को पहाड़ी मैना चाहिए। काले ख़ाँ की नौकरी नवाब के निजी बग़ीचे में लग जाती है। वहाँ गाने वाली पहाड़ी मैना मौजूद है। काले ख़ाँ उस मैना को चुराकर अपनी बेटी को दे देता है। जाँच बैठ जाती है। कोतवाल, काले ख़ाँ को पकड़ लेता है। नवाब साहब के पास मामला जाता है। वह कहते हैं—मियाँ, चोरी वहाँ की जाती है जहाँ माँगने से न मिले। तुम एक बार माँगकर तो देखते।

मुझे लगता है, नैयर मसउद की कहानी से नवाब वाजिद अली शाह नहीं, बल्कि मेहता साहब बोल रहे हैं।